Shrinathji Prakatya sthal

गोवर्धन पर्वत के पास आन्योर गाँव के सद्दू पाण्डे की हजारों गायों में से एक गाय नंदरायजी के गौवंश की थी, जिसे धूमर कहा जाता था। वह नित्य तीसरे प्रहर उस स्थान पर पहुँच जाती थी, जहाँ श्री गोवर्धननाथजी की वाम भुजा का प्रकट्य हुआ था। वहाँ एक छेद था। उसमें वह अपने थनों से दूध की धार झराकर लौट आती थी। सदू पाण्डे को संदेह हुआ कि ग्वाला अपरान्ह में धूमर गाय का दूध दुह लेता है इसलिए यह गाय संध्या समय दूध नहीं देती है। एक दिन उसने गाय के पीछे जाकर स्थिति जाननी चाही, उसने देखा कि गाय गोवर्धन पर्वन पर एक स्थान पर जाकर खडी हो गयी और उसके थनों से दूध झरने लगा। सद्दू पाण्डे को आश्चर्य हुआ। उसके निकट जाकर देखा तो उसे श्री गोवर्धननाथजी के मुखारविन्द के दर्शन हुए इसी दिन वैशाख कृष्ण ११ को संवत् १५३५ छत्तीसगढ़ के चम्पारण्य में श्री वल्लाभाचार्य का प्राकट्य हुआ। श्री गोवर्धननाथजी ने स्वयं सद्दू पाण्डे से कहां कि-‘मेरा नाम देवदमन है तथा मेरे अन्य नाम इन्द्रदमन और नागदमन भी है। उस दिन से ब्रजवासी श्री गोवर्धननाथजी को देवदमन के नाम से जानने लगे। सदू पाण्डे की पत्नी भवानी व पुत्री नरों देवदमन को नित्य धूमर गाय का दूध आरोगाने के लिए जाती थी।ShriHari (8)

वि.स. १५४९ (ई.स. १५९३) फाल्गुन शुक्ल एकादशी गुरूवार के दिन श्री गोवर्धननाथजी ने महाप्रभु श्री वल्लभाचार्यजी को झारखण्ड में आज्ञा दी-हमारा प्राकट्य गोवर्धन की कन्दरा में हुआ है। पहले वामभुजा का प्राकट्य हुआ था और फिर मुखारविन्द का। अब हमारी इच्छा पूर्ण स्वरूप का प्राकट्य करने की है। आप शीघ्र ब्रज आवें और हमारी सेवा का प्रकार प्रकट करे। यह आज्ञा सुनकर महाप्रभु श्री वल्लभाचार्य अपनी यात्रा की दिशा बदलकर ब्रज में गोवर्धन के पास आन्योर ग्राम पधारे वहाँ आप श्री सद्दू पाण्डे के घर के आगे चबूतरे पर विराजे। श्री आचार्यजी महाप्रभु के अलौकिक तेज से प्रभावित होकर सद्दू पाण्डे सपरिवार आपश्री के सेवक बने। सद्दू पाण्डे ने आपश्री को श्रीनाथजी के प्राकट्य की सारी कथा सुनाई। श्री महाप्रभुजी ने प्रातः काल श्रीनाथजी के दर्शनार्थ गोवर्धन पर पधारने का निश्चय व्यक्त किया। दूसरे दिन प्रातः काल श्री महाप्रभुजी अपने सेवको और ब्रजवासियों के साथ श्री गिरिराजजी पर श्रीनाथजी के दर्शनों के लिए चले। सर्वप्रथम आपने हरिदासवर्य गिरिराजजी को प्रभु का स्वरूप मानकर दण्डवत प्रणाम किया और उनसे आज्ञा लेकर गिरिराजजी पर धीरे-धीरे चढ़ना आरम्भ किया। जब दूर से ही सद्दू पाण्डे ने श्रीनाथजी के प्राकट्य का स्थल बतलाया तब महाप्रभुजी के नेत्रों से हर्ष के अश्रुओं की धारा बह चली। उन्हे ऐसा लग रहा था कि वर्षो से प्रभु के विरह का जो ताप था, वह अब दूर हो रहा है। उनकी पर्वत पर चढ ने की गति बढ गई। तभी वे देखते है कि सामने से मोर मुकुट पीताम्बरधारी प्रभु श्रीनाथजी आगे बढे आ रहे है। तब तो श्रीमद् वल्लभाचार्य प्रभु के निकट दौडते हुए से पहुँच गये। आज श्री वल्लभाचार्य को भू-मंडल पर अपने सर्वस्व मिल गये थे। श्री ठाकुरजी और श्री आचार्यजी दोनो ही परस्पर अलिंगन में बंध गये। इस अलौकिक झाँकी का दर्शन कर ब्रजवासी भी धन्य हो गये। आचार्य श्री महाप्रभु श्रीनाथजी के दर्शन और आलिंगन पाकर हर्ष-विभोर थे। तभी श्रीनाथजी ने आज्ञा दी-”श्री वल्लभ यहाँ हमारा मन्दिर सिद्ध करके उसमें हमें पधराओं और हमारी सेवा का प्रकार आरम्भ करवाओं”।श्री महाप्रभु जी ने हाथ जोड़कर विनती की ”प्रभु !आपकी आज्ञा शिरोधार्य है”।

श्री महाप्रभु ने अविलम्ब एक छोटा-सा घास-फूस का मन्दिर सिद्ध करवाकर ठाकुरजी श्री गोवर्धननाथजी को उसमें पधराया तथा श्री ठाकुरजी को मोरचन्द्रिका युक्त मुकुट एवं गुंजामला का श्रृंगार किया। आप श्री ने रामदास चौहान को श्रीनाथजी की सेवा करने की आज्ञा दी। उसे आश्वासन दिया कि चिन्ता मत कर स्वयं श्रीनाथजी तुम्हे सेवा प्रकार बता देंगे। बाद में श्री महाप्रभुजी की अनुमति से पूर्णमल्ल खत्री ने श्रीनाथजी का विशाल मन्दिर सिद्ध किया। तब सन् १५१९ विक्रम संवत् १५७६ में वैशाख शुक्ल तीज अक्षय तृतीया को श्रीनाथजी नये मन्दिर पधारे तथा पाटोत्सव हुआ। तब मधवेन्द्र पुरी तथा कुछ बंगाली ब्राह्मणों को श्रीनाथजी की सेवा का दायित्व सौपा गया

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